Friday, 3 May 2013





वहां सामने जो धुंआ दिख रहा है,
मुझे आदमी का निशां दिख रहा है.

बस्ती जली है या चूल्हा जला है,
किसे है पता, कुछ कहाँ दिख रहा है.

यहीं चीख सी इक सुनाई पड़ी थी,
 मगर ये शहर, बेजुबां दिख रहा है.

लगी आग खुद, या लगायी गयी है,
यहाँ हर दिया, राजदां दिख रहा है.

क्या आदमी की नयी नस्ल है ये,
लहू में सना, हर जवां दिख रहा है.

दुआ में अभी हाथ कैसे उठायें,
परेशान सा, आसमां दिख रहा है.
               (v.k.srivastava)

Tuesday, 23 April 2013


एक नज़्म



मेरी दुआ में वैसे तो कोई कमी न थी
शायद ख़ुदा  को फ़िक्र ही तेरी रज़ा की थी,
जाने ख़ुदा से तुमने इबादत में क्या कहा,
सारी दुआ रकीबों की कबूल हो गयी .

लेकर मशाल - ए - आशिकी मै साथ चला था,
परवाह आँधियों का मेरे दिल में कहाँ था,
रस्ते न जाने तुमने ही क्यूँ कर बदल लिए,
और मेरे दिल की रोशनी फ़िज़ूल हो गयी .

तुम पर किसी भी बात का इलज़ाम नहीं है,
शायद वफ़ा निभाना ही आसान नहीं है,
तुमने तो निभाया है दस्तूर - ए - ज़माना,
दस्तूर - ए - मोहब्बत की मुझसे भूल हो गयी .
(vksrivastava)

Wednesday, 17 April 2013


बचपन










हाथ बढ़ा कर 
करता हूँ  
कोशिश,
जब 
चाँद को 
पकड़ने की,
हँसता है
बचपन,
मेरी नादानी पे.

खो जाता हूँ जब
भूल-भुलैया में,
तारों की,
लौटा देता है
कोई,
फिर से, 
राहों में
बचपन की.

जी करता है 
दौड़ने का,
अनायास फिर से,
देखकर  
एक बच्चे को,
भागते 
यूँ ही,
अनायास.












(v.k.srivastava)

कृष्ण ! तुम कहाँ हो !
















कृष्ण ! तुम कहाँ हो !

कृष्ण ! तुम कहाँ हो !


सत्य है पराजित,

बेवस, हे केशव !

आज फिर 'द्रोपदीको

नोच रहे 'कौरव'.



अधम, नीच, पापी

     कर रहे शासन,

     साधु जन शोषित,

पीड़ित हैं सुजन.  


व्याप्त है सर्वत्र

अधर्म ही अधर्म,

कामना में ‘फल’ की 

हो रहा कुकर्म


    स्तब्ध है ‘पार्थ’

    सशंकित हर मन 

    दिये कुरुक्षेत्र में, 

    क्या झूठे बचन ?


    परित्राणाय साधुनाम,

    विनाशाय च दुष्कृताम,

    धर्म संसथाप्नार्थाय,  

फिर से अवतार लो

कृष्ण ! तुम जहाँ हो ! 

कृष्ण ! तुम जहाँ हो ! 

(v.k.srivastava)

इस शहर में


इस शहर में,
दिन होता है
ना 
रात होती है.
किसी के पास यहाँ,
तभी तो वक्त नहीं.

इस शहर में,
खून
बहुत होते है.
बड़ी कद्र है
लोगों में यहाँ,
रिश्तों की.

इस शहर में,
रहते हैं
तमाम लोग बड़े,
बड़ी गरीबी है,
कहते हैं 
इस शहर में भी.

इस शहर में,
होती है
तिजारत ऐसी,
कि सज जाते हैं 
 'बाज़ार,'
शाम ढलते ही.

इस शहर में,
जाना पहचाना था
शिर्फ़ शख्स इक,
नज़र आता नही 
वोअब 
आईने में भी.

(v.k.srivastava)




मज़हब



1.
मज़हब लाता है करीब,
इंसान को,
ईश्वर, अल्ला और ईशा के.
हजारों क़त्ल होके,
हो गए करीब,
ईश्वर, अल्ला और ईशा के.

2.
मज़हब तोड़ता है दीवार,
दिलों के बीच की,
राम, रहीम और पीटर के.
खंज़र उतरा था, ठीक
दिल की दीवारों में
राम, रहीम और पीटर के.

3.
मज़हब सिखा देता है हमें
जीने का ढंग,
हिन्दू सा, मुस्लिम सा, ईसाई सा.
क़त्ल कर लेते हैं हम
तभी तो,
हिन्दू सा, मुस्लिम सा, ईसाई सा.


(v.k.srivastava)



भोर


झिलमिल सितारों से भरी,
आकाशगंगा की परी,
लहरा के आँचल चल पड़ी,
नाज़ुक, लचकती बल्लरी,

मखमल सी कोमल चाँदनी,
कलकल, नदी की रागिनी,
बंसी की मादक तान,
जैसे भैरवी, शिवरंजिनी,

पायल में छमछम सी खनक,
आंखों में जुगनू की चमक,
शीतल पवन यूँ मंद-मंद,
सासों में फूलों की महक,

'
प्रियतम' बड़ा बेकल अधीर,
उस छोर झांके नभ को चीर,
सदियों से लम्बी हर घड़ी,
'क्यूँ चल रही धीरे, अरी'?

बेला मिलन की आसपास,
चहु ओर लाली की उजास,
आलिंगनबद्ध 'निशा-भोर'
धरती को नवजीवन की आस।
(v.k.srivastava)